Thursday, 17 April 2014

काकू दा के क़िस्से

पिछले कुछ दिनों से मुझे एक बात बहुत परेशान कर रही है| वो यह कि बालों की लंबाई और शेविंग का अनुशासन से क्या संबंध है ?
जब मेरे बाल छोटे है तब मैं अनुशासित और जब मेरे बाल बड़े हो गये तब मैं अनुशासनहीन | अब कम से कम NCC के अधिकारियों को तो यही लगता है| तभी तो वे लोग महीने में कम से कम तीन बार काकू दा से मेरा अपायंटमेंट रखवा ही देते है| आपकी जानकारी के लिए बता दूँ, काकू दा मेरे छात्रावास के पास चौराहे पर स्थित केश कर्तनालय के मालिक और मेरे रेग्युलर केश कर्तक हैं| (अपने पॉकेट फ्रेंड्ली रेट्स की वजह से)
शनिवार आने वाला था और इससे पहले कि NCC अधिकारियों को मेरी टाँग खींचने का मौका मिले, मैनें दो दिन पहले ही काकू दा के पास जाना उचित समझा|
गुरूवार का दिन है, शाम के पाँच बज रहे हैं और मैं बैठा हूँ काकू दा के सलून में| चारों तरफ लगे आईने, एक बड़े आईने के सामने रखी लंबी सी गर्दन वाली कुर्सी और कुर्सी पे बैठे व्यक्ति के कानों के आस पास अपनी कैंची और कंघा लेकर किट-पिट करते काकू दा| सुबह से शाम तक उनकी दुकान में यही दृश्य होता है|
एक कोने में पुराना सा 14 इंच का कलर टीवी रखा हुआ है जिसकी नाम किसी जापानी बच्चे के निक-नेम से मिलता-जुलता लगता है| टीवी पर सेट मॅक्स लगा हुआ है जिस पर नागार्जुन की कोई फिल्म चल रही है| वैसे मुझे आश्चर्य होता है कि जब भी मैं काकू दा के सलून जाता हूँ तो टीवी पर सेट मॅक्स लगा होता है और नागार्जुन की ही कोई फिल्म चल रही होती है|
आज भी दुकान में काफ़ी भीड़ थी और अपने जीवन के सत्तर से अधिक वसंत और KGP के अब तक के सारे वसन्तोत्सव (Spring Fest) देख चुके काकू दा के काम करने की गति देखकर लगता था कि आज भी कम से कम एक घंटा तो मुझे नागार्जुन की फिल्म देखना ही पड़ेगा|
मैनें कुछ देर तो बहुत कोशिश की लेकिन मैं जल्दी ही उस फिल्म से बोर हो गया| बेंच पर चार-पाँच साल पुराने ‘Filmfare’ पत्रिका के कुछेक अंक रखे हुए थे, उन्हीं की मदद से मैनें जैसे-तैसे अपना वक़्त काटा|
फाइनली मेरा नंबर भी आ गया और फिर शुरू हुआ काकू दा के क़िस्सों का दौर|
काकू दा हमेशा यही करते थे| जब भी मैं कुर्सी पे बैठता था, वो मुझे अपने क़िस्से सुनाया करते थे| सिर्फ़ मुझे क्या ? शायद हर किसी को सुनाते होंगे| उसी टेंपो के साथ| उनके पापा से लेकर उनके पोतों तक सारे क़िस्से वो सुना देते थे|
वैसे तो अपने पोपले से मुँह से वो मुश्किल से ही कुछ बोल पाते थे लेकिन फिर भी अपनी क़िस्सागोई की आदत उन्होनें नहीं छोड़ी थी| हाँ, कपकँपाते हाथों की वजह से बाल काटने की उनकी स्पीड ज़रूर धीमी हो गयी थी,लेकिन ज़बान तो अभी भी उतनी ही स्पीड से चलती थी|
काकू दा ने बताना शुरू किया कि कैसे 60 साल पहले उनके पिताजी ने उस दुकान को बनाया, और फिर कुछ सालों बाद पिताजी की मृत्यु के बाद कैसे काकू दा दुकान चला रहे हैं| वो बताते है कि दुकान के सामने लगा नीम का पेड़ उनके पिताजी से सन् 1955 में लगाया था जब दुकान के नाम पर वहाँ बस एक छोटा सा आईना और कुर्सी हुआ करती थी| उस दौर में काकू दा अपने पिताजी से काम सीखा करते थे| 1966 में पिताजी के स्वर्गवास के बाद से वो अकेले ये दुकान चला रहे है|
वो कहते है कि KGP के कई पुराने छात्र 25-30 साल बाद जब वापस आते है तो उनसे ज़रूर मिलते है और कहते है, “काकू दा, आप तो अब भी वैसे ही हो|” मुझे आश्चर्य होता है कि क्या 30 साल पहले भी काकू दा ऐसे ही बूढ़े, पोपले मुँह, कँपकपाते हाथों वाले रहे होंगे|
काकू दा के क़िस्सों की सबसे अच्छी बात ये है कि उनके क़िस्से सुनकर वक़्त का पता ही नहीं चलता और क़िस्से बताते हुए उनकी खुशी देखते ही बनती है|इन्हीं क़िस्सों को सुनते-सुनते मेरे बाल NCC अधिकारियों के लायक हो गये | और दादा को पैसे देकर मैं अपने रूम चला आया| इसी उम्मीद में कि अगली बार फिर कुछ नये क़िस्से सुनने को मिलेंगे|
वैसे हिन्दुस्तान के हर गली, हर चौराहे में ना जाने कितने काकू दा रहते हैं| सबके अपने-अपने क़िस्से, अपनी-अपनी कहानियाँ हैं|
कभी वक़्त मिले तो आप भी किसी काकू दा को ढूँढ लीजिए और उनके क़िस्से सुनिए| अच्छा लगता है| 
-Lokesh Deshmukh

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