Thursday, 17 April 2014

कश्ती के किनारे से

कश्ती के किनारे से,
असीमित सागर की ओर,
या अंतहीन अंबर की ओर,
देखने की कोशिश करता हूँ,
कुछ ढूँढने की कोशिश करता हूँ,
सब कुछ नज़र आता हैं,
बस वो ही नहीं हैं|
उसका वो आख़िरी ख़त ज़रूर है,
और जो नज़्म लिखी थी उसके लिए,
वो आख़िरी फोन कॉल,
उसकी दबी दबी सी आवाज़,
ख्वाहिश है फिर वो आवाज़ सुनने की,
एक आख़िरी बार,
गिले-शिकवे भूलकर,
फिर से दोस्त बन जाने की |
कश्ती के किनारे से,
असीमित सागर की ओर,
अब भी कुछ ढूँढ रहा हूँ|

-Lokesh Deshmukh

No comments:

Post a Comment