Friday, 11 April 2014

मन की उलझन

जाने क्यूँ यूँ पल-पल क्षण-क्षण,

खुद से उलझा करता है मन /

भावों की लहरें हैं उठती ,

पल-पल डूब उतरता है मन /


क्या खोया,क्या पाया अब तक,

किस भाँति बीता यह जीवन /

क्यों ऐसा सोचे तू रे मन ?

शायद व्यर्थ रहा यह जीवन !


मन तू इतना हीन न बन

सब कुछ होते दीन न बन /

क्या है तेरे वश से बाहर

तू यूँ भाग्याधीन न बन /


देख जगत में अंगविहीन

नयन,कर्ण या हस्त से हीन

कुछ तो पैरों से लाचार

तो भी हैं निज कर्म में लीन /


अब तू खुद को देख एक बार,

क्यों ये क्षुब्ध होए तेरा मन ?

संकल्पित बस राह पकड़ ले

सुलझेगी खुद ही उलझन /

- Kumar Keshvendra

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