जाने क्यूँ यूँ पल-पल क्षण-क्षण,
खुद से उलझा करता है मन /
भावों की लहरें हैं उठती ,
पल-पल डूब उतरता है मन /
क्या खोया,क्या पाया अब तक,
किस भाँति बीता यह जीवन /
क्यों ऐसा सोचे तू रे मन ?
शायद व्यर्थ रहा यह जीवन !
मन तू इतना हीन न बन
सब कुछ होते दीन न बन /
क्या है तेरे वश से बाहर
तू यूँ भाग्याधीन न बन /
देख जगत में अंगविहीन
नयन,कर्ण या हस्त से हीन
कुछ तो पैरों से लाचार
तो भी हैं निज कर्म में लीन /
अब तू खुद को देख एक बार,
क्यों ये क्षुब्ध होए तेरा मन ?
संकल्पित बस राह पकड़ ले
सुलझेगी खुद ही उलझन /
- Kumar Keshvendra
खुद से उलझा करता है मन /
भावों की लहरें हैं उठती ,
पल-पल डूब उतरता है मन /
क्या खोया,क्या पाया अब तक,
किस भाँति बीता यह जीवन /
क्यों ऐसा सोचे तू रे मन ?
शायद व्यर्थ रहा यह जीवन !
मन तू इतना हीन न बन
सब कुछ होते दीन न बन /
क्या है तेरे वश से बाहर
तू यूँ भाग्याधीन न बन /
देख जगत में अंगविहीन
नयन,कर्ण या हस्त से हीन
कुछ तो पैरों से लाचार
तो भी हैं निज कर्म में लीन /
अब तू खुद को देख एक बार,
क्यों ये क्षुब्ध होए तेरा मन ?
संकल्पित बस राह पकड़ ले
सुलझेगी खुद ही उलझन /
- Kumar Keshvendra
No comments:
Post a Comment